AchhiBaatein.com

गृहस्थ बड़ा या सन्यासी Inspirational Hindi Kahani

गृहस्थ बड़ा या सन्यासी? Inspirational Hindi Kahani,  इसमें सभी लोगो का अपना अपना मत हैं कोई गृहस्थ को बड़ा मानता हैं तो कोई सन्यासी को, वेदों और धर्म शास्त्रों में भी दोनों के बारें में बताया गया हैं, दोनों ही अच्छे और बड़े हैं अगर अच्छे से पालन किया जाए तो, आइये जानते हैं इस वाक्य का मर्म इस कहानी के माध्यम से

प्राचीन समय की बात है। एक नगर में एक बहुत विचित्र राजा रहता था। उस राजा की एक बड़ी ही अजीब आदत थी। जब भी नगर में कोई साधू या सन्यासी आता था तो वह उसे बुलाकर पूछता था कि “गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”

जो भी बताता कि गृहस्थ बड़ा है। वह राजा उससे कहता था कि – “अगर ऐसा हैं तो फिर आप सन्यासी क्यों बने ? चलिए गृहस्थ बनिए!” इस तरह वह उस सन्यासी को भी गृहस्थ बनने का आदेश देता था।

अगर कोई यह बताता कि सन्यासी बड़ा है। तो राजा उससे प्रमाण मांगता था। यदि वह प्रमाण न दे सके तो वह उसे भी गृहस्थ बना देता था। इस तरह कई संत आये और उन्हें सन्यासी से गृहस्थ बनना पड़ा।

इसी बीच एक दिन नगर में एक महात्मा का आगमन हुआ। उसे भी राजा ने बुलाया और आदतन अपना वही पुराना प्रश्न पूछा “गृहस्थ बड़ा या सन्यासी ?”

महात्मा बोले “राजन ! न तो गृहस्थ बड़ा है, न ही सन्यासी, जो अपने धर्म का पालन करें। वही बड़ा है।”

राजा बोला “चलो अच्छी बात है लेकिन क्या आप अपने कथन को सत्य सिद्ध कर सकते है ?
महात्मा ने कहा “अवश्य ! इसके लिए आपको मेरे साथ चलना होगा।” राजा महात्मा के साथ चलने के लिए तैयार हो गया।

दुसरे ही दिन दोनों घूमते घूमते दुसरे राज्य निकल गये। उस राज्य में राजकन्या का स्वयंवर हो रहा था।

दूर दूर के राजा राजकुमार आये हुए थे। बड़े ही विशाल उत्सव का आयोजन किया गया था। राजा और महात्मा दोनों उस उत्सव में शामिल हो गये।

स्वयंवर का शुभारम्भ हुआ। राजकन्या राजदरबार में उपस्थित हुई। वह बड़ी ही रूपवती और सुन्दर थी। सभी राजा और राजकुमार स्तब्ध होकर उसे देख रहे थे और मन ही मन उसे पाने की कामना कर रहे थे।

Sanyasi swayamvar hindi kahani

राजकन्या के पिता का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। इसलिए महाराज राजकन्या द्वारा स्वयंवरित राजकुमार को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करने वाला था।

राजकुमारी अपनी सखियों के साथ राजाओं के बीच घुमने लगी। वहाँ उपस्थित सभी राजाओं को देखने के पश्चात भी उसे कोई पसंद नहीं आया।  राजा निराश होने लगे राजकुमारी के पिता भी सोचने लगे कि स्वयंवर व्यर्थ ही जायेगा, क्योंकि राजकुमारी को तो कोई वर पसंद ही नहीं आया।

तभी वहाँ एक तेजस्वी युवक सन्यासी का आगमन हुआ। सूर्य के समान उसका चेहरा कांति से चमक रहा था। तभी राजकुमारी की दृष्टि उस युवा सन्यासी पर पड़ी। देखते ही राजकुमारी ने अपनी वरमाला उसके गले में पहना दी।

अचानक हुए इस स्वागत से वह युवा सन्यासी अचंभित और आश्चर्यचकित हो गया। उसने तुरंत वस्तुस्थिति को समझा और तत्क्षण उस माला को अपने गले से निकालते हुए कहा – “हे देवी ! क्या तुझे दिखाई नहीं देता ! मैं एक सन्यासी हूँ। मुझसे विवाह के बारे में सोचना तेरी भूल है।”

तभी राजा ने सोचा “लगता है यह कोई भिखारी है जो विवाह करने से डर रहा है।” उन्होंने अपनी घोषणा दुबारा दोहराई – “हे युवक ! क्या तुम्हें पता भी है। मेरी पुत्री से विवाह करने के बाद तुम इस सम्पूर्ण राज्य के मालिक हो जाओगे। क्या फिर भी तुम मेरी पुत्री का परित्याग करोगे ?

सन्यासी बोला – “राजन ! मैं सन्यासी हूँ और विवाह करना मेरा धर्म नहीं है। आप अपनी पुत्री के लिए कोई अन्य वर देखिये।” इतना कहकर वह वहाँ से चल दिया।

किन्तु वह युवक राजकुमारी के मन में बस चूका था। उसने भी प्रतिज्ञा की कि “मैं विवाह करूंगी तो उसी से अन्यथा अपने प्राण त्याग दूंगी।” इतना कहकर वह भी उसके पीछे – पीछे चली गई।

वह राजा और महात्मा जो यह वृतांत देख रहे थे।

उनमें से महात्मा ने कहा – “चलो ! हम भी उनके पीछे चलकर देखते है, देखते हैं क्या परिणाम होता है ?”

वह दोनों भी राजकुमारी के पीछे – पीछे चलने लगे।
चलते चलते वह एक घने जंगल में पहुँच गये। तभी वह युवा सन्यासी तो कहीं अदृश्य हो गया और राजकुमारी अकेली रह गई।

घने जंगल में किसी को न देख राजकुमारी व्याकुल हो उठी। तभी यह राजा और महात्मा उसके पास पहुँच गये और उन्होंने राजकुमारी को समझाया। यह दोनों उसे उसके पिता के पास छोड़ने के लिए ले जाने लगे।

वह जंगल से बाहर निकले ही थे कि अँधेरा हो गया। सर्दी की काली अंधियारी रात थी। भटकते-भटकते यह तीनो एक गाँव में पहुंचे।

वे गाँव के चौपाल पर जाकर बैठ गये। बहुत सारे लोग वहाँ से गुजरे लेकिन किसी ने इन ठण्ड से ठिठुरते मुसाफिरों का हाल तक नहीं पूछा।

तभी वहाँ से एक गाड़ीवान गुजरा। वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ खेत से घर आ रहा था। उसने देखा कि वह तीनों ठण्ड से ठिठुर रहे है। वह उनके पास गया और पूछताछ कि तो महात्मा ने भटके हुए मुसाफ़िर बता दिया।

किसान बोला – “हे अतिथिदेव ! अगर आप चाहे तो आज रात मेरे घर ठहर सकते है।” वह उनको घर ले गया। भोजन की पूछी और भोजन करवाया।

उस दिन उनके घर में ज्यादा अनाज नहीं था। अतः किसान और उसकी पत्नी ने अपने हिस्से का भोजन अतिथियों को करवा दिया और स्वयं भूखे ही सो गये।

सुबह हुई। राजकन्या को उसके पिता के पास छोड़कर राजा और सन्यासी दोनों वापस अपने नगर को चल दिए।

महात्मा ने राजा से कहा – देखा राजा ! राजकन्या और राज्य को छोड़ने वाला वह सन्यासी अपनी जगह बड़ा है और हमारे अतिथि सत्कार के लिए स्वयं भूखा सोने वाला वह गृहस्थ किसान अपनी जगह बड़ा है।

एक तरफ सन्यासी ने राज, वैभव और रमणी का तनिक भी मोह न करके अपने धर्म का पालन किया है, इसलिए वह निश्चय ही महान है। दूसरी तरह उन दंपति ने अपना व्यक्तिगत स्वार्थ न देखकर अतिथिसेवा को प्रधानता दी, इसलिए वह दोनों भी निश्चय ही महान है

किसी भी देश, काल और परिस्थिति में अपने धर्म – कर्तव्य का पालन करने वाला मनुष्य ही बड़ा होता है। फिर चाहे वह गृहस्थ हो या सन्यासी, कोई फर्क नहीं पड़ता।

इस तरह महात्मा ने अपनी बात को सत्य सिद्ध किया और राजा भी उसकी इस बात और प्रमाण से संतुष्ट हो गया।

भगवदगीता में भी जब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को ज्ञान योग और सन्यास के बारें में बताया तो अर्जुन सन्यास की और आकर्षित होने लगा, अर्जुन के भगवान् से पुछा, क्या आप मुझे यह बताएँगे की मेरे लिए क्या श्रेष्ठ हैं?

भगवान श्रीकृष्णा ने धर्म और कर्तव्य को श्रेष्ठ बताया और बताया कि तुम्हारा धर्मं “क्षत्रिय” हैं और युद्ध करना ही तुम्हारा कर्तव्य हैं यदि मोहवश तुम युद्ध नहीं करोगे तो आने वाली पीढियो से तुम्हे अपयश की प्राप्ति होगी और तुमारी उज्व्वल कीर्ति नष्ट हो जायेगी ।

Exit mobile version