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नेता लोग ईमानदारी की कसमें खाकर बेईमान कैसे हो जाते हैं?

कहते हैं ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है। यह बात बिल्कुल दुरुस्त और सटीक है। आजकल दुनिया भर में यह ढिंढोरा जोर जोर से पीटा जा रहा है। हमारा यह राजनीतिक परिवेश हो या सामाजिक, हर जगह ईमानदारी को सबसे अच्छी नीति के तौर पर स्वीकार तो किया जाता है।

लेकिन हैरत और अफसोस इस बात पर है कि इस नीति को जब अपनाने और इस पर सख्ती से अमल करने की बात आती है तो 90 प्रतिशत लोग इससे अपने कदम खींच लेते हैं और बेईमानी, कपट, छलावे और धोखेबाजी की राह पर निकल पड़ते हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हर प्रकार की नीतियों में ईमानदारी वाकई सबसे अच्छी नीति है। इस बात में भी कोई शक शुबहा और संदेह नहीं है कि इस नीति पर चलकर ही इस धरती पर मौजूद कोई भी इंसान वास्तविक सुख, शांति, समृद्धि और सुकून को हासिल कर सकता है।

लेकिन बदकिस्मती यह है कि यह नीति इस घोर कलयुगी दौर में बहुत कम लोगों के खून में गर्दिश कर पाती है क्योंकि सांसारिक वैभव, समृद्धि, प्रतिष्ठा और वर्चस्व को प्राप्त करने की ख्वाहिश आदमी को जानवर बना देती है। इस तरह इंसान अपनी सारी कसमें वादे भूल कर केवल और केवल धन, वैभव और सांसारिक सुख के पीछे भागने लगता है।

उसे यह समझ नहीं आता कि आज वह जो कमा रहा है, कल खुदा की अदालत में उसका हिसाब किताब भी देना है। उसे यह यह बात मालूम नहीं होती या फिर अगर मालूम होती भी है तो वह उस पर अमल नहीं करना चाहता कि खुदा अपनी अदालत में कल फैसले के दिन उससे कण कण का हिसाब लेने वाला है।

उसे यह हिसाब देना है कि यह कल कारखाने, सुख, समृद्धि, प्रतिष्ठा, सम्मान, धन और वैभव उसने जायज तरीकों का इस्तेमाल करके हासिल किया है या नहीं? अगर उसका जवाब नकारात्मक हुआ तो उसे घुटने के बल घसीट कर नरक की खौफनाक काली आग की घाटियों में फेंक दिया जाएगा।

लेकिन आश्चर्य इस बात पर है कि इन सभी बातों को जानते हुए भी कुछ लोग दुनिया की रंगीनियों और सुख एवं समृद्धि को नाजायज तौर पर हासिल करने के चक्कर में इस कदर उलझ गए हैं कि उन्हें मरणोपरांत (मरने के बाद के) जीवन की कोई फिक्र ही नहीं है।

हालांकि यह बात भी सर्वमान्य है कि आज हम जो अच्छा या बुरा काम कर रहे हैं, उसका नतीजा भी हमें इसी दुनिया में ही एक दिन जरूर भुगतना है, मरने के बाद वाली फैसले की घड़ी तो अभी बहुत दूर है।

हमारे समाज में बेईमानों की कोई कमी नहीं है लेकिन सियासी दुनिया में कदम रखते ही ज्यादातर लोग बेईमान क्यों हो जाते हैं, आईए इसके पीछे के रहस्य से पर्दा उठा कर उसे समझने का प्रयास करते हैं:

नतीजों की नहीं होती परवाह

वास्तव में बेईमानों का कोई क्षेत्र नहीं होता। वह दुनिया के किसी भी क्षेत्र में रहें बेईमानी और धोखाधड़ी पर जरूर उतर आते हैं। उन्हें बुरे कामों के बुरे नतीजों का आभास भी नहीं होता और इस तरह बुराई इसी दुनिया में ही उन्हें तबाहो बर्बाद और जलील कर देती है।

सच्चाई ये है कि इंसान जो भी बुरा या दिल दुखाने वाला काम करता है तो उसका नतीजा सबसे पहले इसी दुनिया में ही उसे भुगतना पड़ता है। इसी तरह जब वह कोई अच्छा या परोपकारी कार्य करता है तो उसके आने वाले कल में शीघ्र या देर से कोई न कोई अच्छी घटना ज़रूर सामने आती है।

मतलब ये कि जो शख्स अपने खेत में जिस तरह की खेती करता है, उसकी फसल भी बिल्कुल वैसी ही तैयार हुआ करती है। कोई इस दुनिया की खेतो में बबूल बोकर अंगूर की उम्मीद न लगाए। हमारे नेता आजकल इस विचारधारा से जानते बूझते या अंजाने में कोई ऐसा कदम ज़रूर उठा देते हैं जिससे जनता को कड़े संकट में घिरकर अक्सर मुसीबतों का सामना करना पड़ता है।

कुछ ऐसे अच्छे नेता आज भी मौजूद हैं जिन्हें अपने अच्छे और बुरे कर्मों से जुड़े नतीजों की परवाह होती है और वे ये समझते हैं कि जिस जिम्मेदारी को उन्हें जनता के द्वारा ईश्वर ने सौंपा है, उसकी आने वाले दिन में कड़ी पूछताछ होने वाली है लेकिन अधिकतर नेता इस विचारधारा से प्रभावित न होकर बुरा रास्ता अपना लेते हैं और सांसारिक सुख और वैभव को प्राप्त करने के चक्कर में अपने अतीत की कसमें और वादों को भूल जाते हैं।

लालच बुरी बला है

lalach buri bala hai Indian government

दुनिया के किसी भी मैदान में हर बुरे काम का कारण यही लालच हुआ करती है। लालच बुरी बला है, इस लोकोक्ति को तो हर कोई जानता है लेकिन जब बात इससे अपनाने की आती है तो ज्यादातर लोग लालच के जाल में उलझे नज़र आते हैं।

उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि वह जो भी धन जुटा रहे हैं, वह जायज़ तरीके से आ रहा है या नाजायज तरीके से? अगर दौलत जायज़ तरीके से कमाई जाए तो वह आदमी को सुख, शांति, समृद्धि और सुकून से लैस कर देती है लेकिन अगर यही दौलत नाजायज तौर पर हथियाई जाने लगे तो गले का फंदा बनकर मुसीबतों को दावत देना शुरू कर देती है।

हमारे बहुत से नेतागण अपनी इसी लालच में मान सम्मान और प्रतिष्ठा को दांव पर लगाकर बुराई के रास्ते पर निकल पड़ते हैं जिससे उनकी लोकप्रियता और राजनैतिक वर्चस्व पर बेहद बुरा असर पड़ता है। इसी लालच के चलते हमारे नेताओं में केवल अपने भविष्य के निर्माण और सुनहरे कल की चिन्ता होती है और उन्हें जनता के हितों, अधिकारों और फायदों से कोई वास्ता नहीं रह जाता।

कहने को तो वह कसमें, वादे और नारे देकर सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हो जाते हैं लेकिन जब बात जनसेवा और लोगों के हितों की रक्षा की आती है तो बेरुखी से वापस पलट जाते हैं। कोई भी जिम्मेदार शख्स जब अपनी जिम्मेदारी को भूल जाता है तो इसके नतीजे केवल दूसरों लोगों पर ही नहीं पड़ते हैं बल्कि वह स्वयं भी इससे बुरी तरह प्रभावित होता है।

यही बात हमारे नेताओं को समझ नहीं आती और सत्ता में आने के बाद वह कुछ ऐसे फैसले कर लेते हैं जो उनकी हरकत और बर्बादी का कारण बन जाते हैं। अगर अपनी जिम्मेदारियों को समझकर वे अपने कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करते और लालच के जाल में न उलझते तो उनके पास सत्ता का आसन भी होता और लोगों का प्यार और समर्थन भी।

सेवा भाव की कमी

पहले अतीत में हमारे राजनीतिक परिवेश और माहौल का स्वरुप कुछ अलग था। पहले लोग राजनीति के मैदान में सेवा भाव के साथ दाखिल हुआ करते थे। राजनीति में आने से पहले वे यह कड़ा निश्चय और फैसला ले लिया करते थे कि अगर उन्हें सियासी कामयाबी मिल गई तो वे अपने जीवन को जनता के हितों के लिए पूरी तरह कुर्बान कर देंगे।

पुराने नेता अपने वादों और प्रतिबद्धताओं के प्रति मज़बूत और जुबान के पक्के रहते थे। वह जो कुछ भी ज़बान से अदा करते थे उसे अमल के सांचे में ढालने पर यकीन रखते थे और ऐसा करने के दौरान वे विपत्तियों से कभी घबराते भी नहीं थे। लेकिन अब हमारा राजनीतिक माहौल काफी बदल चुका है।

इस घोर कलयुगी दौर में जहां कोई किसी का हाल-चाल तक लेना गवारा नहीं समझता, वहीं ऐसी परिस्थिति में हमारे अक्सर सियासी रहनुमा और नेता भी जनसेवा के फर्ज को पूरी तरह भुला चुके हैं। अफसोस इस बात पर है कि उन्हें जनहित से अब कोई खास सरोकार भी नहीं रहा।

पारदर्शिता का अभाव

जब सरकारें अपनी व्यवस्थाओं में पारदर्शिता (Transparency) नहीं ला पातीं तो भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुंच जाता है जिसका फायदा सीधे तौर पर भ्रष्ट नेता उठाने की कोशिश करते हैं। किसी भी देश में भ्रष्टाचार को तभी रोका जा सकता है जब दलालों पर लगाम लगाई जाए और उन पर दंड संहिता ओं के तहत कठोर कार्यवाही अमल में लाई जाए।

हमारे संविधान में दोषियों को कानूनी प्रक्रिया से गुजरने के दौरान बहुत देर लगा दी जाती है। अक्सर हमारे संविधान में दर्ज निर्मल और नरम कानून का फायदा बेईमान और भ्रष्ट लोग उठाते हैं और अपराध की दुनिया में कदम रखकर बहुत आगे निकल जाते हैं। बहुत से नेता चुनाव करीब आते ही जमीन पर उतर आते हैं और लोगों से हाथ जोड़ कर उनके कीमती वोटों की गुहार लगाते हैं।

इन्हीं नेताओं को जब जनता अपना सम्पूर्ण सहयोग और समर्थन देकर सत्ता और वर्चस्व के बिल्कुल करीब पंहुचा देती है तो अक्सर यही नेता उनका तरह तरह से शोषण और उत्पीड़न करने लगते हैं। उनके सलाम का ठीक से जवाब तक नहीं देते।

जनता के कमाई हुई खून पसीने की दौलत को अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति समझ बैठते हैं। उन्हें शायद इस बात का अंदाजा नहीं होता कि वे जन कल्याणकारी योजनाओं को लागू करके जनता पर कोई एहसान नहीं कर रहे बल्कि ये तो जन धन था जो उन्होंने देश की सरकार को टैक्स के रूप में दिया था। फिर नेता उन्हीं के पैसों से कोई कल्याणकारी कार्य करते हैं।

अगर इन पैसों में भ्रष्टाचार या बेईमानी की जाती है तो सीधे तौर पर यह पारदर्शिता के अभाव में ही सामने आती है। मतलब ये कि पहरेदारी नहीं रहेगी तो दोषियों को जुर्म के दौरान डर कैसे सताएगा? इसलिए व्यवस्था में पारदर्शिता और जांच न होने के चलते भी कुछ नेता बेईमानी की ओर तेजी के साथ कदम बढ़ाकर जनता के धन पर कब्जा जमा लेते हैं।

महंगाई भी है बेईमानी का स्रोत

बढ़ती महंगाई भी भ्रष्टाचार या बेईमानी का कारण बनती है जब कोई नेता आर्थिक तंगी का शिकार हो जाता है तो वह अपने बाल बच्चों के सुनहरे कल की चिंता में गलत रास्ते अख्तियार कर लेता है। मजबूरी या लालच में वह बेईमानी के मार्ग पर चलकर दौलत कमाने की फिराक में रहता है।

इसलिए कहा जाता है कि महंगाई भी हमारे नेताओं की बेईमानी के स्रोतों में से एक महत्वपूर्ण स्रोत है जिसके द्वारा आम लोगों का शोषण किया जाता है क्योंकि नेता जो भी धन अपनी झोली में डालते हैं, वह उनका व्यक्तिगत नहीं बल्कि जनता की ही खून पसीने की गाढ़ी कमाई होती है।

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