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रामायण(Ramayana) की परिभाषा प्रेम,आदर, त्याग, निष्ठा और समर्पण

रामायण(Ramayana) में त्याग की पराकाष्ठा हैं, भोग की तो बिल्कुल नहीं है, आइये छोटे-छोटे वृतांत से जानते हैं।
भरत जी भगवान श्रीराम की आज्ञा अनुमति पाकर नंदिग्राम में रहते हैं, और शत्रुघ्न जी उनके आदेश से राज्य का संचालन करते हैं।

एक रात का वृतांत हैं, माता कौशिल्या जी को शयन करते समय, महल की छत पर किसी के चलने की आवाज सुनाई दी जिससे नींद खुल गई, सेविका से पुछा, देखो तो कौन हैं?

सेविका आज्ञा पाकर देखकर आई, महारानी जी, श्रुतिकीर्ति जी हैं, उन्हें पता लग गया हैं की आपकी नींद में बाधा पहुची हैं वो नीचे आ रही हैं।

श्रुतिकीर्ति जी, जो सबसे छोटी पुत्रवधू हैं, आईं और चरणों में प्रणाम कर खड़ी हो गईं।

कौशिल्या जी ने पूछा, श्रुति! पुत्री, इतनी रात के समय अकेली छत पर क्या कर रही हो? क्या नींद नहीं आ रही हैं बताओ?

और हाँ, शत्रुघ्न कहाँ है ?

यह बात सुनकर, श्रुतिकीर्ति जी की आँखें भर आईं, और झट से माता की छाती से चिपट गई, गोद में सिमट गईं, बोलीं, माँ उन्हें तो मुझे देखे हुए ही तेरह बरस हो गए।

यह बात सुनकर कौशल्या जी का ह्रदय काँप उठा, और मुहं से निकला, क्या कह रही हो?

तुरंत सेवको, सेविकाओं को आवाज लगाईं, सेवक दौड़े- दौड़े आए। आधी रात को ही पालकी तैयार हुई, आज रात को ही शत्रुघ्न की खोज होगी, माँ चल पड़ी।

क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हो, शत्रुघ्न जी कहाँ मिले होंगे?

अयोध्या नगरी के जिस द्वार के बाहर भरत जी नंदिग्राम में तपस्वी के समान रहते थे, उसी द्वार के भीतर एक पत्थर की शिला थी, उसी शिला पर, अपनी बाँह का तकिया सा बनाकर लेटे मिले।

माता पुत्र के सिराहने ही बैठ गईं, और बालों में हाथ फिराया, करुणा और ममताभरा स्पर्श महसूस करके शत्रुघ्न जी ने आँखें
खोलीं, माता आप यहां और इस समय!

उठे, चरणों में गिरकर प्रणाम किया, माता! आपने क्यों कष्ट किया? मुझे ही बुलवा लिया होता।

माँ ने कहा, पुत्र, शत्रुघ्न! यहाँ क्यों आवास कर रहे हो?”

शत्रुघ्न जी की भी रुलाई फूट पड़ी, बोले- माता ! भैया राम जी तो पिताजी की आज्ञा से वनवास को चले गए, भैया लक्ष्मण जी तो उनके पीछे चले गए, भैया भरत जी भी नंदिग्राम में तपस्वियों जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं, क्या ये महल, ये हाथी-घोड़े, ये रथ, ये राजसी वस्त्र, ईश्वर ने मेरे ही लिए बनवाएं हैं?

शत्रुघ्न की बात सुनकर माता कौशल्या जी निरुत्तर हो गई।

देखो यह रामकथा हैं, जिसमें प्रेम और त्याग की अथाह नदिया बह रही हैं।

यह भोग की को कदापि नहीं, बल्कि त्याग की कथा हैं, यहाँ तो मानो जैसे त्याग की प्रतियोगिता चल रही हैं और आश्चर्य यह हैं कि सभी प्रथम हैं, कोई भी पीछे नहीं रहा

चारो भाइयों का प्रेम, निष्ठा और उनकी पत्नियों का त्याग और एक दूसरे के प्रति समझ अद्भुत-अभिनव और अलौकिक हैं।

रामायण काव्य एक अच्छा जीवन जीने की सबसे उत्तम शिक्षा देती हैं, श्रीराम का जीवन और वह काल सभी के लिए अनुकरणीय हैं।

माता और पिता द्वारा भगवान राम को 14 वर्ष का वनवास हुआ तो उनकी पत्नी सीता जी ने भी सहर्ष ही वनवास स्वीकार कर लिया। परन्तु हमेशा से ही बड़े भाई की सेवा में तत्पर रहने वाले लक्ष्मण जी आखिर कैसे राम जी से दूर हो पाते!

माता सुमित्रा से तो उन्होंने पहले ही आज्ञा ले ली थी, वन जाने की, परन्तु जब पत्नी उर्मिला के कक्ष की ओर बढ़ रहे थे तो संकोच कर रहे थे और सोच रहे थे कि माता ने तो आज्ञा दे दी, परन्तु उर्मिला को आखिर किस प्रकार समझाऊंगा!! क्या कहकर, कहूंगा!

यहीं सोच विचार करके जैसे ही लक्ष्मण अपने कक्ष में पहुंचे तो देखा कि उर्मिला जी तो पहले ही आरती का थाल लेकर खड़ी थीं और बोलीं- “आप मेरी तनिक भी चिंता न करें और प्रभु की सेवा में वन को प्रस्थान करें। मैं आपको रोकने का प्रयास भी नहीं करुँगी और मेरे कारण आपकी सेवा में कोई बाधा आये, इसलिये मैं साथ जाने की जिद्द भी नहीं करूंगी।”

लक्ष्मण जी जिस बात को कहने में संकोच हो रहा था, उनके कुछ भी कहने से पहले ही उर्मिला ने उन्हें संकोच से बाहर निकाल दिया। देखा जाएँ तो वास्तव में यहीं पत्नी का धर्म है। पति जिस बात को लेकर संकोच में पड़े, उससे पहले ही पत्नी उसके “मन की बात” जानकर उन्हें संकोच से बाहर कर दे!

लक्ष्मण जी वनवास को चले गये, परन्तु 14 वर्ष तक उर्मिला ने भी एक तपस्विनी की भांति तप किया। वन में भैया-भाभी की सेवा में लगे, लक्ष्मण जी कभी सोये नहीं परन्तु उर्मिला ने भी अपने महलों के द्वार को कभी बंद नहीं किया और सारी रात जाग जागकर दीपक की लौ को बुझने नहीं दिया।

मेघनाथ से युद्ध करते समय जब लक्ष्मण को शक्ति-बाण लग जाता है और पवनपुत्र हनुमान जी उनके लिये संजीवनी का पहाड़ लेकर लौट रहे होते हैं, तो बीच में अयोध्या में भरत जी उन्हें निशाचर समझकर बाण मारते हैं और हनुमान जी वहीं गिर जाते हैं। तब हनुमान जी भरत को सारा वृत्तांत सुनाते हैं कि सीता जी को रावण अपहरण कर ले गया, और लक्ष्मण जी मूर्छित हैं।

Hanumaanji with sanjeevni buti

यह खबर सुनकर कौशल्या जी कहती हैं कि राम को सन्देश पहुंचा देना कि लक्ष्मण के बिना अयोध्या में पैर भी न रखें और राम वन में ही रहे, इतने में माता सुमित्रा कहती हैं कि राम से कहना कि कोई बात नहीं, परेशान न हो। अभी मेरा एक पुत्र शत्रुघ्न भी है। मैं उसे सेवा में भेज दूंगी आखिर मेरे दोनों पुत्र राम सेवा के लिये ही तो जन्मे हैं।

माताओं का प्रेम देखकर हनुमान जी की आँखों से अटूट अश्रुधारा बहने लगी थी। परन्तु जब उन्होंने लक्ष्मण जी की वधु उर्मिला जी को देखा तो सोचने लगे कि यह ऐसे क्यों एकदम शांत और प्रसन्न खड़ी हैं? क्या इन्हें अपनी पति के प्राणों की तनिक भी चिंता नहीं?

हनुमान जी पूछते हैं- देवी! आखिर आपकी प्रसन्नता का क्या कारण है? एक और आपके पति के प्राण संकट में हैं। सूर्य उदय के साथ ही सूर्य कुल का दीपक बुझ जायेगा। उर्मिला जी का उत्तर सुनकर, हनुमान जी क्या, तीनों लोकों का कोई भी मनुष्य उनकी वंदना किये बिना नहीं रह पाएगा।

वह बोलीं- “मेरा दीपक लक्ष्मण जी तो बिल्कुल भी संकट में नहीं है, और वो तो बुझ ही नहीं सकता। रही सूर्योदय की बात जो आप कह रहे हैं, तो आप चाहें तो कुछ दिन अयोध्या में विश्राम भी कर लीजिये, क्योंकि आपके वहां पहुंचे बिना सूर्य उदय हो ही नहीं सकता।

जैसा आपने कहा कि प्रभु श्रीराम मेरे पति को अपनी गोद में लेकर युद्धस्थल में बैठे हैं। आखिर जो योगेश्वर राम की गोदी में लेटा हो, काल उसे छू भी नहीं सकता, आप भ्रमित क्यों हो रहे हैं। यह तो वो दोनों लीला कर रहे हैं। मेरे पति लक्ष्मण जी जब से वन गये हैं, तबसे सोये तक नहीं हैं। उन्होंने न सोने का प्रण लिया था।

इसलिए वे थोड़ी देर विश्राम कर रहे हैं और ऐसे में जब अगर भगवान् की गोद मिल गयी तो थोड़ा विश्राम ज्यादा हो गया। वे आराम से उठ जायेंगे और रही शक्ति की बात तो वो मेरे पति को लगी ही नहीं, शक्ति तो राम जी को लगी है।

मेरे पति की हर श्वास में राम नाम हैं, हर धड़कन में राम नाम, उनके रोम रोम में राम हैं, उनके खून की बूंद बूंद में राम हैं, और जब उनके शरीर और आत्मा में हैं ही सिर्फ राम ही राम हैं तो शक्ति राम जी को ही लगी न, दर्द भी राम जी को ही हो रहा हैं। इसलिये हनुमान जी आप निश्चिन्त होकर जाएँ। सूर्य उदय नहीं होगा, “जब तक आप नहीं पहुचेंगे।”

राम राज्य जिसमें सभी प्रसन्न थे, उसकी नींव जनक की बेटियां ही तो थीं, कभी सीता तो कभी उर्मिला। भगवान् श्री राम ने तो केवल राम राज्य का कलश स्थापित किया था परन्तु वास्तव में राम राज्य इन सबके प्रेम, त्याग, समर्पण , बलिदान से ही आ पाया।

भगवान श्रीराम आप सभी का भला करें।

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