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शालू का समर्पण, मान-सम्मान और नैतिकता

शालू के पति की बहुत ही जल्द मृत्यु हो जाने की वजह से उसे मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने बच्चों को संभालने के लिए ही पूरे घर को संभालना पड़ा। वह चाहती थी कि उसकी तरह उसके बच्चों को किसी के घर का काम ना करना पड़े बल्कि वे आसानी के साथ अपने जीवन में आगे बढ़ सके।

यह सोचते हुए ही शालू हर काम बड़ी ईमानदारी के साथ करती और कभी किसी को भी शिकायत का कोई मौका नहीं देती थी।

वंदना जी के यहां शालू पिछले 1 साल से काम कर रही थी जिसके अंतर्गत वह झाड़ू ,पोछा, बर्तन, कपड़ा सब कुछ करती थी और जब त्यौहार आता तो वह जी तोड़ मेहनत करती ताकि उसको कुछ बोनस मिल सके और वह अपने बच्चों के लिए  कपडे़ खरीद सके लेकिन वंदना जी थोड़ी खड़ूस थी

और उन्हें कभी भी शालू का काम पसंद नहीं आया और हमेशा वह शालू के काम में नुक्स निकालती रहती थी।

हालांकि शालू भी परेशान थी लेकिन वह जानती थी कि जितना ज्यादा पगार वंदना जी शालू को देती है उतना कोई भी नहीं देता और कभी-कभी वंदना जी अपनी पुरानी साड़ियां भी शालू को देती है, जो शालू के लिए बिल्कुल नई जैसी ही रहती हैं।

एक दिन अचानक शालू की छोटी बेटी की तबीयत खराब हो गई और वह वंदना जी से छुट्टी लेने आ गई लेकिन वंदना जी के घर में मेहमान आने वाले थे और वह भी बेटी दामाद।

ऐसी स्थिति में वह शालू को छुट्टी देने के लिए मना कर देती है। ऐसे में शालू रुवासा हो जाती है और रोते हुए कहती है – “दीदी मेरी बेटी की तबीयत पिछले 4 दिन से बहुत खराब है। मैंने डॉक्टर को दिखाया लेकिन उनकी दवाई असर नहीं कर रही है अगर मैं यहां काम करती रही तो मेरी बच्ची मुझे याद करेगी और रोती रहेगी।”

इस बात पर वंदना जी गुस्से से बोलती हैं — तेरी तो एक बेटी और है ना अगर तेरी बेटी को कुछ हो ही जाता है, तो तेरी बड़ी बेटी तेरे काम आ जाएगी। ऐसे मैं तुझे परेशान होने की जरूरत नहीं है और हां मेरे तो बेटी दामाद आ रहे हैं उनके लिए मुझे अच्छे-अच्छे पकवान बनाने हैं उसके लिए तू मेरी मदद कर।”

वंदना जी की बात से शालू को बहुत गुस्सा आया और उसका मन हुआ कि वह तुरंत काम से छुट्टी लेकर चली जाए लेकिन वह ऐसा नहीं कर सकती थी क्योंकि वंदना जी के दी गई पगार से ही शालू के घर का खर्च चलता था और दवाइयां भी वह उन्हीं पैसों से लेने वाली थी।

इतनी जल्दी उसे कोई दूसरा काम नहीं मिल पाएगा यह सोचकर शालू चुपचाप काम में लग जाती है। शालू जब भी कोई पकवान बनाने की तैयारी कर रही होती है, तो वह कोई न कोई गलती कर बैठती थी जिस वजह से उसे बार बार वंदना जी की डांट खानी पड़ती थी।

वंदना जी— “तुम्हें कुछ समझ में आता भी है अरे मेरे बेटी दामाद पहली बार शादी के बाद आ रहे हैं। मैं उन्हें हर तरीके से खुश देखना चाहती हूं लेकिन तुम्हारी लापरवाही की वजह से मैं कहीं तुम्हें काम से ही ना निकाल दूं।”

शालू रोते हुए— “नहीं नहीं दीदी ऐसा मत करिएगा मैं बिल्कुल भी काम में गलती नहीं करूंगी।”

शालू का मन बहुत बेचैन हो रहा था और वह अपनी बेटी को देखना चाहती थी लेकिन किसी ना किसी कारण से वह काम में अटक जाती थी। वंदना जी के काम पूरा होने में रात का 8:00 बज गया और जैसे ही वह घर पहुंची तो शालू की बेटी का बुखार बहुत तेज हो चुका था और उसे डॉक्टर के पास एडमिट कराना पड़ा।

शालू  चाहते हुए भी अब वंदना जी के यहां नहीं जा पा रही थी क्योंकि अपनी बेटी को इस हाल में छोड़ कर जाना किसी भी मां के लिए आसान नहीं होता है।

एक-दो दिन करके शालू पूरे 5 दिन तक काम में नहीं गई और इस वजह से उसे वंदना जी का गुस्सा झेलना पड़ा। बहुत समझाने के बाद भी वंदना जी समझ नहीं पा रही थी। वह तो शालू को घर से ही निकालना चाहती थी लेकिन बहुत बोलने के बाद वंदना जी ने शालू को घर से नहीं निकाला और शालू भी अब किसी भी स्थिति के आने पर भी छुट्टी नहीं लेती थी और वह अपनी पड़ोसन विमला को अपने बच्चों का ख्याल रखने के लिए बोल देती थी क्योंकि वह जानती थी कि अगर यह काम उसके हाथ से निकल गया तो आसानी से दूसरा काम नहीं मिलेगा जहां उसे एक साथ इतने सारे पैसे मिल जाते हैं।

एक दिन जब वंदना जी की सहेली खाने में आती है तो शालू पूरे मन से काम करती है और जब तक पूरा खाना नहीं बन जाता तब तक वह वहीं रूकती है। यह सब देखकर वंदना जी की सहेली बहुत खुश होती है और जब शालू अपने घर जाती है उस समय सहेली शालू के हाथों में ₹500 रख देती है।

यह देखकर वंदना जी तुरंत बोल पड़ती हैं —”अरे इसको इतने सारे पैसे देने की क्या जरूरत है? मैं तो इसे देती ही रहती हूं और वैसे भी इन गरीबों को पैसों की कदर नहीं होती है। पैसे दो और तुरंत उड़ाने लगते हैं।”

वंदना जी  की सहेली— “अरे तुमने देखा नहीं बेचारी काम में डूबी हुई है। इसे तो अपनी सुध बुध ही नहीं है और तुम्हारा सहयोग देकर इसमें तुम्हारा साथ भी तो दिया है इसीलिए मैं इससे खुश होकर यह इनाम दे रही हूं।”

शालू ने बार-बार मना किया लेकिन जब वंदना जी की सहेली ने नहीं माना तब उसने पैसे रख लिए यह सोच कर कि इस पैसों से वह अपने बच्चों के लिए कोई खिलौना खरीद लेगी। लेकिन दूसरी तरफ वंदना जी मुंह बनाती दिखाई दी जो नहीं चाहती थी कि उनकी सहेली शालू को कुछ भी दे।

देखते ही देखते समय आगे बढ़ गया और अब दिवाली का त्यौहार आ गया था। जब शालू का काम पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गया क्योंकि अब शालू घर का काम पूरा निपटा कर वंदना जी के यहां भी साफ सफाई करके हर काम निपटाने की जिम्मेदारी निभाती थी।

जब भी वंदना जी छिटपुट करती तो वह चुपचाप अपने काम में लग जाती और पूरी तरह से वंदना जी के घर का ख्याल रखती थी। बीच-बीच में जब भी उसे अपने बच्चों की याद आती तो वह अपनी पड़ोसन से फोन में बात कर लेती और मन को तसल्ली दिला लेती थी।

एक दिन अचानक काम करने के बीच में ही उसने देखा कि वंदना जी बेहोश होकर गिर पड़ी है। शालू दौड़ कर उन्हें उठाती है और उनका पूरा ध्यान रखती है। उनको सहारा देकर सोफे पर बैठाती है और फिर पानी देकर आराम करने को कहती है।

वैसे तो शालू ने भी महसूस किया था कि दो-तीन दिनों से वंदना जी की तबीयत ठीक नहीं थी लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा ऐसे में शालू ने भी उन्हें कुछ ना कहना बेहतर समझा क्योंकि वह जानती थी कि उस के कुछ भी कहने पर वंदना जी भड़क जाएंगी।

शालू मन में सोचती है– कल दिवाली का त्यौहार है। मैंने अपने बच्चों को बोला था कि मैं उनके लिए नए कपड़े खरीद कर लाऊंगी लेकिन दीदी की तबीयत ठीक नहीं होने से मैं उनके लिए कुछ भी नहीं ले पाई।

मैं दीदी को इस हाल में नहीं छोड़ सकती बच्चों के लिए कपड़े तो मैं बाद में भी ले सकती हूं लेकिन दीदी की तबीयत में सुधार नहीं हुआ तो मैं खुद को माफ नहीं कर पाऊंगी।

अब शालू ने पूरे मन से वंदना जी की सेवा की और वंदना जी को ले जाकर डॉक्टर के पास भी दिखा लाई। डॉक्टर ने वंदना जी से कहा— “आपको धन्यवाद, हमें नहीं बल्कि आपकी इस कामवाली शालू को करना चाहिए। इसने ही आपको सही समय पर यहां लाकर चेकअप करवा लिया वरना आपका शुगर लेवल और बीपी काफी हद तक गिर चुका था और जिसका असर आपकी सेहत पर भी पड़ रहा था।”

उनकी इस बातों से वंदना जी आंखों में आंसू लिए हुए शालू की ओर देखती है और हाथ जोड़ने लगती हैं।

यह देखकर शालू उनसे कहती है– “दीदी यह आप क्या कर रही हैं? मैंने जो कुछ भी किया वह मेरा फर्ज था आखिर आपकी वजह से ही तो मेरा घर चलता है। मेरे बच्चों को वह सारी खुशियां मिलती हैं जो मैं उन्हें देना चाहती हूं।

वंदना जी— मैंने तेरे साथ हमेशा बुरा व्यवहार किया है कभी भी तुझे और तेरे बच्चों के लिए अच्छी भावना नहीं रखी लेकिन तूने पूरे जी तोड़ मेहनत करते हुए मेरा साथ दिया और कभी भी कोई शिकायत नहीं की।

तूने दिवाली के त्योहार में भी घर ना जाकर मेरी सेवा करना जरूरी समझा और इस वजह से मेरे दिल में तेरे लिए सम्मान की भावना जागृत हो गई है और मैं तुझ से माफी मांगना चाहती हूं।

शालू– “अरे नहीं दीदी ऐसी कोई बात नहीं है। दिवाली तो हर साल ही आएगी लेकिन आपकी सेहत में अगर सुधार नहीं होता तो मुझे बहुत बुरा लगता। आप से मुझे कोई शिकायत नहीं है।”

ऐसा बोल कर दोनों डॉक्टर के केबिन से बाहर आने लगती हैं और तभी वंदना जी किसी को फोन करते हुए नजर आती हैं। जैसे ही दोनों घर पहुंचते हैं तो शालू यह देखकर चकित हो जाती है कि उसके बच्चे वंदना जी ने अपने घर ही बुलवा लिए हैं ताकि सभी मिलकर दिवाली मना सकें और खुशियां बांट सके।

वंदना जी— “तूने मेरे लिए इतना कुछ किया है तो तेरे लिए मैं कुछ कर सकूं यह मेरी खुशकिस्मती होगी। इस दीवाली के त्यौहार में मैं तुझे तेरे बच्चों से दूर नहीं कर सकती इसीलिए मैंने इन्हें अपने घर बुला लिया है ताकि हम सभी मिलकर दिवाली मना सकें और अमीर गरीब की दीवार को गिरा सकें।”

ऐसा बोलकर वंदना जी शालू के बच्चों के लिए लाए हुए कपड़े और खिलौने देने लगती हैं जिसे देखकर शालू की आंखों में आंसू आ जाते हैं और अब वंदना जी के दिल से शालू के लिए सारी बुराइयां और दुर्भावना बाहर आ जाती है और शालू भी पहले से कहीं ज्यादा मन लगाकर काम करने लगती है।

दोस्तों, कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि हम अपने से नीचे तबके को उचित मान-सम्मान नहीं देते और उनका निरादर करते हैं। हमें यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि मान सम्मान प्राप्त करना प्रत्येक इंसान का हक होता है।

ऐसे में कभी भी उनके काम की वजह से उन्हे अपमानित करना हमारे नैतिकता के खिलाफ है और कभी भी त्यौहार में बुरा कहना धर्म के खिलाफ है। ऐसे में शालू जैसे लोगों का दिल दुखाना भी सही नहीं माना जाएगा।

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