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क्या सामाजिक समानता संभव हैं?

दुनिया के हर देश के अक्सर नागरिक अपने संविधान में दर्ज कानून का पालन करने की भरपूर कोशिश करते हैं। वे कानून के पालन में बहुत हद तक कामयाब भी हो जाते हैं। दुनिया के लगभग सभी देशों के संविधान में सामाजिक समानता से जुड़े कानून मौजूद हैं।

लेकिन जब बात समानता और बराबरी के अधिकार से जुड़े कानून या व्यवस्था के पालन की आती है तो लोग जी चुराते हुए पीछे हट जाते हैं। इस मानसिकता के पीछे किसी व्यक्ति का धर्म, जाति, संप्रदाय, वर्ग, व्यवसाय, लिंग, पेशा और क्षेत्रफल आदि कारक एवं कारण के रूप में काम करते हैं।

सामाजिक समानता (Social Equality) में किसी शख्स की भाषा, नस्ल, रंग रूप, सामाजिक, शैक्षिक या व्यापारिक स्तर भी काफ़ी अहम किरदार निभाते हैं। कहा जाता है कि यह बंटवारा सिर्फ इसलिए किया गया था कि समाज में रह कर लोग अपनी अपनी छवि या पहचान सुनिश्चित करा सकें लेकिन दिन गुजरते गए और लोग असमानता के जाल में उलझ कर एक दूसरे को नफरत, द्वेष और हीन भावना से देखने लगे।

वैसे बहुत से लोगों पर इस बंटवारे का कोई प्रभाव नहीं पड़ता और वह इस बात के लिए खास कोशिशें करते रहते हैं कि किसी तरह कोई नीति या योजना बनाकर इस समाज को एक समान यानि समता मूलक समाज का स्वरुप दे दिया जाए।

खास बात ये है कि वे अपने असाधारण प्रयासों में नाकाम तो नहीं होते लेकिन पूरी तरह से कामयाब भी नहीं हो पाते। कहीं कहीं तो उनके प्रयासों के बुरे नतीजे भी बरामद होते देखे गए हैं।

बहुत से लोग ये यकीन रखते हैं कि समाज में गरीब और दबे कुचले लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाकर उन्हें बराबरी और सम्मान दिलाने का ख्वाब कभी पूरा नहीं किया जा सकता लेकिन कुछ ऐसे उपाय और तदबीरें हैं जिन्हें अगर जंगी पैमाने पर अमल में लाया जाने लगे तो सकारात्मक परिणाम जरूर निकल सकते हैं।

आईए! उन उपायों पर गौर करते हैं जिससे बुराई के रूप में फैलने वाली यह बीमारी जड़ से उखाड़ फेंकी जा सकती है

राह चलते मिलती हैं समानता की मिसालें

importance of social equality

सामाजिक असमानता हमारे समाज की एक ऐसी कड़वी और कठोर सच्चाई है जिसे कभी ठुकराया नहीं जा सकता। अगर आप इस हकीकत को देखने के मकसद के साथ घर से निकलें तो हमारे समाज में कोई ऐसा शख्स नहीं होगा जो किसी न किसी तरीक़े से असमानता का दंश झेल कर मानसिक कष्ट से दोचार न हो।

दुनिया में हर इंसान से बड़े स्तर या पद पर कोई न कोई इंसान मौजूद है।

मैं एक बार जब रास्ते से गुजर रहा था, मैंने एक ट्रक को देखा जिस पर बड़े और मोटे अक्षरों में लिखा हुआ था, “बुरी नजर वाले तेरा मुंह काला“। हममें से अक्सर लोग इस मिसाल को हर रोज़ पढ़ते भी हैं लेकिन वो इसकी गहराई में नहीं उतर पाए जिसमें हमें सौंदर्य से जुड़ी असमानता का प्रतिबिंब नजर आता है।

इस कहावत में काले रंग को बुराई से जोड़ा गया और इसमें सौंदर्य से जुड़ी असमानता पनप रही है जिसमें साफ तौर पर काले रंग को नकारात्मक बताया गया है। यह समाज में रंगभेद या सौंदर्य से जुड़ी असमानता के पनपने का पुख्ता सबूत है।

इस पर यह क्यों नहीं लिखा गया कि “बुरी बुरी नजर वाले तेरा मुंह गोरा“। हालांकि यह बात भी गलत है। गोरा रंग भी नहीं लिखा जाना चाहिए लेकिन अफसोस कि हमारे समाज में रंगभेद सदियों से अपनी जड़ें ठोस और मजबूत किए हुए है और उसकी मजबूती इस आधुनिक युग में अब भी बरकरार है।

लोग चेहरे की खूबसूरती और रंग के पीछे ठीक उसी तरह पीछे पड़ जाते हैं जैसे लोहा चुम्बक के करीब होकर सट जाता है।

यह सब कुछ हमारे समाज में पनप रही सौंदर्य से जुड़ी असमानता का प्रतीक और प्रमाण हैं। यह खूबसूरती और बदसूरती के बीच इतना अंतर पैदा हो चुका है कि इंसान को इन्सान की अंदरूनी खूबियां, गुण, योग्यता और विशेषताएं नज़र ही नहीं आतीं।

इसी तरह, समाज के गरीब और मजदूर तबके को हीन भावना से देखकर उन्हें कमतर समझना और उन्हें शोषित या उत्पीड़ित करना भी इस दौर में बिल्कुल आम हो चुका है जो आर्थिक असमानता को खुले तौर पर प्रदर्शित करता है।

इस दौर में दौलत से आदमी के रुतबे या स्टैटस को जोड़ दिया गया है जो सरासर ज़ुल्मो सितम और अन्याय है जिससे किसी गरीब या कमज़ोर व्यक्ति को मानसिक पीड़ा के दौर से गुजरना पड़ता है।

समाज का कोई अमीर व्यक्ति इसी सामाजिक असमानता के चलते किसी गरीब के साथ रहना गवारा नहीं करता और उसे वह सम्मान और स्नेह से नहीं नवाजता जो वह अपने बराबरी के लोगों को दिया करता है। समाज के बहुत से लोग भी इसी आर्थिक असमानता के चलते हमेशा अमीरों को ही दोस्त बनाते हैं। उनकी नजर किसी इंसान के गुण, योग्यता, व्यवहार कुशलता या ईमानदारी एवं निष्ठा पर नहीं होती।

किसी व्यक्ति को कभी उसकी धर्म जाति मजहब नस्ल या लिंग पर सख्त रवैया और कड़े दुर्व्यवहार का सामना होता है तो कभी उसके साथ जुल्मों सितम के वह पहाड़ तोड़ दिए जाते हैं जिसकी मिसाल अतीत में भी कहीं नहीं मिलती। जुल्म से भरी इस दास्तान को सुनकर लोगों के भीतर खौफ और दहशत की लहर दौड़ पड़ती है।

दरअसल, यह सभी अपराध सामाजिक असमानता के चलते ही सामने आते हैं। आप कोई भी कानून बना लें लेकिन जिस व्यक्ति के मन में अपने लिए सर्वश्रेष्ठता या गुरूर का जज्बा हो, वह कभी किसी को वह सम्मान और इज्ज़त नहीं दे सकता जिसका सामने वाला सही मायनों में हकदार है।

शिक्षा है हर सामाजिक बीमारी का इलाज

इस गंभीर सामाजिक बीमारी से निजात पाने के लिए लोगों को जंगी पैमाने पर जागरूक करने की आवश्यकता है यह जागरूकता तभी आ सकती है जब हम सामाजिक असमानता के बुरे नतीजों के बारे में लोगों को आगाह करें और उन्हें इससे बचने के उपायों पर गौर करने की नसीहत करते रहें।

यह तभी संभव है जब हमारे समाज के हर व्यक्ति का रुझान और झुकाव शिक्षा की ओर हो जाएगा। यह बहुत कठिन कार्य है लेकिन खुशकिस्मती यह है कि यह असंभव नहीं है। अगर हर आदमी को शिक्षा के माध्यम से जागरूक कर दिया जाए तो वह इस संक्रामक बीमारी से मुक्ति के मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

हमारे संविधान ने देश के सभी नागरिकों को समानता के अधिकार से लैस रखा है और किसी के साथ भी असमानता की बुनियाद पर किसी किस्म की ज्यादती को कभी किसी हाल में बर्दाश्त नहीं करता। इसके अलावा, हमारा संविधान असमानता को अपराध की श्रेणी में रखता है। बहुत से लोग तो शिक्षित न होने की वजह से अपने ही संविधान के बुनियादी ज्ञान से अछूते और अनजान रहते हैं।

इस तरह न तो वह सामाजिक या आर्थिक असमानता के चलते अपनी जिन्दगी में संकट के बादलों को छांट पाते हैं और न ही इसे अपराध समझ पाते हैं, जबकि इसके खिलाफ हमारे संविधान में कठोर कानून और दण्ड संहिताएं दर्ज हैं।

जब आप किसी अपराध या गलत काम को अपराध ही नहीं समझेंगे तो उसके खिलाफ़ कार्यवाही कैसे अमल में लायेंगे? इसलिए इस दिशा में लोगों को शिक्षित और जागरूक करने की ज़रूरत है कि यह नया और अनोखा भारत है जहां हर शख्स को संविधान की मूल मंशा के मुताबिक बराबरी और समानता के अधिकार दिए गए हैं।

यहां सब एक भारतीय नागरिक होने के नाते इसी सरजमीन की पैदावार हैं जिन्हें एक ही नज़र से देखा जाना चाहिए।

योग्यता हो जाए आधार

किसी व्यक्ति की सफ़लता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके भीतर मौजूद गुण, प्रतिभा, योग्यता या हुनर से जुड़ी होती है। व्यक्तिगत गुणों को यदि समानता का आधार बना लिया जाए तो काफी हद तक सामाजिक असामनता के दंश से सुरक्षित रहा जा सकता है।

अगर आप अपनी योग्यता को साबित करने में कामयाब हो गए तो सामने वाले शख्स पर इसका सकारात्मक असर पड़ता है। वह आपके व्यक्तित्व और योग्यताओं का कायल हो जाता है और इस तरह उसके दिल में चाहे आप किसी भी समाज के हों, आपके प्रति सम्मान उभर आता है।

इसलिए जब भी आपको एहसास होने लगे कि आपके साथ कोई भेदभाव या पक्षपात पूर्ण रवैया अख्तियार किया जा रहा है, उससे बिल्कुल भी न घबराएं। ऐसे आलम में अपनी योग्यताओं की छाप छोड़ दें।

सामने वाला खुद बखुद सर झुकाने पर मजबूर हो जाएगा। जैसे आपने अपनी योग्यताओं के सहारे देश की सबसे कठिन परीक्षा यानि आईएएस या सिविल सर्विसेज को पास आऊट कर बडे़ अधिकारी बन गए तो जिलेभर में हर जाति, मजहब, वर्ग, समुदाय के अमीर या गरीब, सब के सब आपका सम्मान करने लगेंगे।

यह योग्यता ही है जिसकी बिना पर आप खुद को साबित कर सामाजिक असमानता के पुराने, पेचीदा और उलझे हुए जाल से अलग हो सकते हैं।

दो बड़े मानव गुण का रखें ध्यान

यूनान के महान दार्शनिक और समाजशास्त्री अरस्तू की मान्यता है कि मनुष्य दो बड़े गुणों को साथ लेकर पैदा हुआ है। उसका एक गुण “आदेश देने वाला गुण है, जबकि दूसरा गुण आदेश का पालन करने वाला”।

इन दोनों गुणों को ध्यान में रखकर आप यह निश्चित करें कि आखिर जिंदगी में आपको करना क्या है?

आपको आदेश देने वाला शख्स बनना है या फिर आदेशों का पालन करने वाला? एक और बुद्धिजीवी के कथन के मुताबिक, “आपकी ये गलती नहीं कही जा सकती है कि आप किसी गरीब या शोषित परिवार में पैदा हुए थे, लेकिन अगर आप उसी कमज़ोर हालत पर इस दुनिया को अलविदा कह गए तो यह आपकी गलती जरूर मानी जाएगी।”

इसलिए व्यक्तिगत रूप से हर व्यक्ति को चाहिए कि वह समाज के जिस किसी निचले पायदान से आ रहा हो, हीन भावना का शिकार न हो और अपने लक्ष्य की ओर ध्यान देकर मेहनत, लगन और आत्मविश्वास के साथ कदम बढ़ाता रहे।

इस तरह वह एक सफल व्यक्ति का रूप धारण कर सामाजिक असमानता के दलदल से सुरक्षित वापस निकल सकता है।

आपने भी देखा होगा कि संसार में जितने भी सफल व्यक्तित्व हैं, उनसे कोई उनकी धर्म या जाति या किसी और सामाजिक या व्यावसायिक आधार पर द्वेष या हीन भावना नहीं रखता, बल्कि उनकी शख्सियत और कामयाबी से प्रेरणा लेने की कोशिश करता है।

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