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जीवनी 8 Mins Read

महान समाज सुधारक महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती का जीवन परिचय

Mahesh YadavBy Mahesh YadavUpdated:Jan 6, 2023No Comments8 Mins Read
Dayananda Saraswati was an Indian philosopher
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वेदो को सर्वोपरि मानने वाले दयानंद सरस्वती भारत के एक महान समाज सुधारक और आर्य समाज के संस्थापक थे। भारत को अंग्रेजों से स्वतंत्रता दिलवाने में दयानंद सरस्वती जी ने महत्वपूर्ण योगदान दिया था।

दयानंद सरस्वती को चारों वेदों का ज्ञान होने के कारण इन्हें महर्षि के नाम से भी पुकारा जाता था। आर्य समाज की स्थापना करके दयानंद सरस्वती जी ने हिंदुओं का मार्ग प्रशस्त किया था। दयानंद सरस्वती जी ने सर्वप्रथम 1876 में स्वराज का नारा दिया था।

दयानंद सरस्वती जी ने अपने विचारों से बहुत से लोगों को प्रभावित किया है उनके विचार आज भी लोगों का मार्गदर्शन करते हैं! दयानंद सरस्वती जी हमेशा कहा करते थे कि वेदों की ओर लौटो! क्योंकि सच्चा ज्ञान सिर्फ वेदों में है। दयानंद सरस्वती जी के बारे में विस्तार पूर्वक जानकारी प्राप्त करने के लिए उनकी जीवनी को पूरा पढ़ें।

स्वामी दयानंद सरस्वती परिचय

नाममहर्षि दयानंद सरस्वतीं
वास्तविक नाममूल शंकर तिवारी
जन्म12 फरवरी 1824
मृत्यु30 अक्टूबर 1883
जन्म स्थानटंकारा
कार्यक्षेत्रसमाज सुधारक
उपलब्धिआर्य समाज की स्थापना

स्वामी दयानंद सरस्वती का प्रारंभिक जीवन

वर्ष 1824 में देश के गुजरात राज्य के टंकारा नामक स्थान पर एक ब्राह्मण परिवार में 12 फरवरी के दिन भारत के प्रसिद्ध समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ।

कुशाग्र बुद्धि के बालक दयानंद ने बचपन से ही उपनिषद, वेद और धार्मिक किताबों का गहन अध्ययन करना चालू कर दिया था। इन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ब्रह्मचर्य में बिताया।

स्वामी दयानंद सरस्वती का परिवार

स्वामी दयानंद सरस्वती के पिता का नाम श्री अंबा शंकर तिवारी था, जो उस समय बतौर टैक्स कलेक्टर अधिकारी कार्य करते थे। उनकी माता का नाम अमृतबाई था। इनकी माता बहुत ही धार्मिक महिला थी और एक गृहणी थी। स्वामी दयानंद सरस्वती जिस परिवार में पैदा हुए थे, वह परिवार आर्थिक तौर पर मजबूत था।

जब स्वामी दयानंद छोटे थे, तभी से कुशाग्र एवम प्रबल बुद्धि के थे। इनके घर में धार्मिक वातावरण था,जिसका स्वामी दयानंद पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा।

एक ऐसी घटना जिससे स्वामी दयानंद की जिंदगी बदल गई

स्वामी दयानंद ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे। इसीलिए धार्मिक अनुष्ठान और विभिन्न प्रकार के धार्मिक आयोजन में स्वामी दयानंद सरस्वती अपने पिता के साथ शामिल होते थे। एक बार शिवरात्रि के दिन अपने पिताजी के साथ स्वामी दयानंद सरस्वती शिवरात्रि के अनुष्ठान में गए थे।

वहां पर उन्होंने अपने पिता के बताए अनुसार पूरे विधि विधान से शंकर भगवान की पूजा की, उपवास रखा और रात भर शंकर भगवान के नाम का जागरण किया।

रात के समय जब स्वामी दयानंद सरस्वती जागरण करते हुए आसन पर बैठे थे, तो उन्होंने देखा कि चूहों का एक समूह सामने रखी भगवान शंकर की मूर्ति के चारों तरफ घूम रहा है और चूहे थाली में जो प्रसाद रखा है, उसे खा रहे हैं।

ऐसे में दयानंद सरस्वती के मन में यह विचार आया कि जब भगवान खुद ही अपने प्रसाद की रक्षा नहीं कर पाते हैं तो इंसान भगवान से इतनी ज्यादा उम्मीदें क्यों रखता है।

जागरण के दौरान देखी गई इस घटना ने स्वामी दयानंद के मन पर बहुत ही गहरा इफेक्ट डाला। इसके बाद स्वामी दयानंद ने आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए अपने घर को छोड़ दिया और आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए निकल पड़े।

स्वामी दयानंद सरस्वती के गुरु श्री विरजानंद

जब शिवरात्रि की घटना को देखने के बाद दयानन्द ने अपना घर बार छोड़कर आत्मज्ञान की खोज में निकलने के लिए अपने कदम आगे बढ़ाए तो घूमते घूमते पंडित श्री विरजानंद से स्वामी दयानंद सरस्वती की मुलाकात हुई और स्वामी दयानंद को विरजानंद ने हीं योग विद्या तथा शास्त्र ज्ञान की शिक्षा प्रदान की।

इसके बाद जब दयानंद सरस्वती ने विरजानंद से गुरु दक्षिणा मांगने को कहा, तब विरजानंद ने स्वामी दयानंद से समाज में फैली हुई बुरी चीजों, अन्याय और अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती को कहा।

स्वामी दयानंद और आर्य समाज

साल 1857 में जब गुड़ी पड़वा का दिन था, तो उसी दिन महाराष्ट्र राज्य के मुंबई शहर में स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज को स्थापित किया। आर्य समाज को स्थापित करने के पीछे स्वामी दयानंद सरस्वती का मुख्य उद्देश्य समाज को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तौर पर उन्नत करना था।

स्वामी दयानंद काफी उच्च कोटि के व्यक्ति थे। इनके अनुसार मानव धर्म ही प्रमुख तौर पर आर्य समाज का धर्म था। स्वामी जी के इस डिसीजन का देश के कई पंडितों ने काफी पुरजोर विरोध किया, परंतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी सही बात और प्रमाणिक सबूतों के साथ सभी विरोधियों को चारों खाने चित कर दिया और सभी की बातों को गलत साबित कर दिया।

स्वामी दयानंद सरस्वती और 1857 की क्रांति

स्वामी दयानंद सरस्वती के अंदर समाज कल्याण की भावना कूट-कूट कर भरी हुई थी और इनके अंदर अंग्रेजी शासन के खिलाफ बहुत ही ज्यादा गुस्सा था। साल 1857 के सभी मुख्य क्रांतिकारी जैसे कि नानासाहेब पेशवा, तात्या टोपे, बालासाहेब इत्यादि सभी स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत ही ज्यादा प्रभावित थे।

समाज को एकजुट करने का काम स्वामी दयानंद सरस्वती ने उस समय किया, हालांकि इसके लिए कई बार उन्हें विभिन्न लोगों के द्वारा अपमान भी झेलना पड़ा था।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने सिर्फ हिंदू धर्म में ही फैली हुई बुराइयों का विरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने अन्य धर्म, मजहब और संप्रदाय में फैली हुई बुराइयों का भी पुरजोर विरोध किया था।

आर्य भाषा का महत्व

स्वामी दयानंद सरस्वती जी को संस्कृत भाषा की अच्छी जानकारी थी। इसीलिए यह भारत देश में अधिकतर संस्कृत भाषा में ही भाषण देते थे, क्योंकि इन्होंने अपने बाल्यकाल से ही संस्कृत भाषा को सीखने और पढ़ना आरम्भ कर दिया था।

इसलिए जब इन्होंने वेदों का अध्यनं करना चालू किया तो वेदों को समझने में और उसकी स्टडी करने में इन्हें किसी भी प्रकार की प्रॉब्लम नहीं हुई। एक बार जब स्वामी दयानंद सरस्वती जी कोलकाता गए, तो वहां पर उनकी मुलाकात केशव चंद्र सेन से हुई।

मुलाकात करने के बाद केशव चंद्र सेन स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत ही ज्यादा प्रभावित हुए, परंतु उन्होंने स्वामी दयानंद सरस्वती को एक सलाह दी कि वे अपने भाषण संस्कृत भाषा में ना देकर हिंदी भाषा में दें, क्योंकि हिंदी भाषा हर किसी को आसानी से समझ में आ जाती है, जिसके बाद साल 1862 से स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने हिंदी भाषा में अपने भाषण देना प्रारम्भ किया उन्होंने यह संकल्प भी लिया कि, वह हिंदी भाषा को भारत देश की राष्ट्रभाषा बनाने की पुरजोर कोशिश करेंगे।

हिंदी भाषा में भाषण देने के बाद ही कई लोग स्वामी दयानंद सरस्वती से जुड़े। स्वामी दयानंद सरस्वती के द्वारा स्थापित आर्य समाज से सबसे अधिक लोग पंजाब राज्य से जुड़े थे।

स्वामी दयानंद सरस्वती के नाम से एजुकेशनल इंस्टीट्यूट

  • महर्षि दयानंद यूनिवर्सिटी, रोहतक, हरियाणा
  • महर्षि दयानंद सरस्वती यूनिवर्सिटी, अजमेर,राजस्थान
  • डीएवी यूनिवर्सिटी, जालंधर, पंजाब

महर्षि दयानंद की पुस्तके और साहित्य

  1. सत्यार्थप्रकाश
  2. भ्रान्तिनिवारण
  3. अष्टाध्यायीभाष्य
  4. वेदांगप्रकाश
  5. ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका
  6. ऋग्वेद भाष्य
  7. यजुर्वेद भाष्य
  8. चतुर्वेदविषयसूची
  9. गोकरुणानिधि
  10. आर्योद्देश्यरत्नमाला
  11. संस्कारविधि
  12. पंचमहायज्ञविधि
  13. आर्याभिविनय
  14. संस्कृतवाक्यप्रबोध
  15. व्यवहारभानु

महर्षि दयानंद सरस्वती की मृत्यु

स्वामी दयानंद सरस्वती अंग्रेजी हुकूमत का पुरजोर विरोध करते थे। स्वामी दयानंद के विरोध को देखते हुए अंग्रेजी हुकूमत उनसे डर चुकी थी, जिसके कारण अंग्रेजी हुकूमत के द्वारा कई बार स्वामी दयानंद सरस्वती को मारने का प्रयास किया गया।

उन्हें कई बार जहर देकर खत्म करने की कोशिश की गई। साल 1883 में जोधपुर के महाराजा के द्वारा स्वामी दयानंद सरस्वती को बुलावा भेजा गया, जिसको स्वीकार करते हुए स्वामी दयानंद सरस्वती निमंत्रण में गए, जहां पर उनका काफी सम्मान के साथ स्वागत किया गया।

कुछ दिन तक राजा की आवभगत भोगने के बाद एक दिन स्वामी दयानंद सरस्वती ने यह देखा कि राजा एक नर्तकी के साथ समय व्यतीत कर रहे हैं। ऐसे में स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा कि राजा एक तरफ तो आप धर्म से जुड़ना चाहते हैं और दूसरी तरफ आप भोग विलास में लिप्त हो रहे हैं, इस तरह तो आप धर्म से कभी भी नहीं जुड़ पाएंगे और ना ही आपको किसी भी प्रकार की ज्ञान की प्राप्ति होगी।

स्वामी दयानंद सरस्वती जी की इन बातों का राजा पर बहुत ही गहन प्रभाव पड़ा और उसके तुरंत बाद ही राजा ने उस नर्तकी से अपने सारे संबंध खत्म कर दिए।

ऐसा करने पर जो नर्तकी थी, वह स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत ही ज्यादा गुस्सा और नाराज रहने लगी, जिसके कारण एक दिन उस नर्तकी ने बावर्ची के साथ मिलकर स्वामी दयानंद सरस्वती के खाने में कांच के छोटे-छोटे टुकड़े मिला दिए, जिसे स्वामी दयानंद सरस्वती ने अनजाने में ग्रहण कर लिया, जिसके कारण उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा।

राजा ने स्वामी दयानंद सरस्वती का इलाज काफी अच्छे वैधो से करवाया, परंतु उनके स्वास्थ्य में किसी भी प्रकार का सुधार नहीं हुआ।

स्वामी दयानंद सरस्वती की सीरियस कंडीशन को देखते हुए बावर्ची को अपनी गलती का एहसास हुआ और उसने स्वामी दयानंद सरस्वती के पास जाकर अपनी गलती को स्वीकार किया और उनसे क्षमा मांगी, जिस पर स्वामी दयानंद सरस्वती ने उस बावर्ची को क्षमा कर दिया।

इसके बाद स्वामी दयानंद सरस्वती को अच्छे इलाज के लिए अजमेर ले जाया गया, जहां पर लंबे इलाज के बाद भी उनकी स्थिति में कोई भी सुधार नहीं हुआ और इस प्रकार साल 1883 में 30 अक्टूबर को स्वामी दयानंद सरस्वती की सिर्फ 59 साल की उम्र में मृत्यु हो गई और इस प्रकार भारत देश ने एक महान् समाज सुधारक को खो दिया।

इनकी जीवनी भी पढ़ें

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