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Success Stories जीवनी 11 Mins Read

मेजर ध्यानचंद – हॉकी का जादूगर Biography In Hindi

Mahesh YadavBy Mahesh YadavUpdated:Jan 29, 20231 Comment11 Mins Read
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Major Dhyan Chand Biography In Hindi, “हॉकी के जादूगर” मेजर ध्यान चंद का जीवन परिचय

हॉकी का पर्याय ‘ध्यानचंद’ कहा जाए तो गलत नहीं होगा। हॉकी का नाम सुनते ही जेहन में ध्यानचंद की ही छवि सहज ही उभर आती है। एक खिलाडी के रूप में गोल करने की उनकी शैली और कला दुसरे सभी खिलाडियों से बिल्कुल अलग और अद्भुत थी इसीलिए उन्हें “हॉकी के जादूगर” के नाम से भी जाना जाता है। सारा विश्व उनके खेल-कौशल का कायल था।

मेजर ध्यानचंद सही मायने में हॉकी के पहले और आखिरी लीजैंड थे, हॉकी के खेल में ध्यानचंद ने लोकप्रियता का जो कीर्तिमान स्थापित किया है उसके आसपास भी आज तक दुनिया का कोई खिलाड़ी नहीं पहुँच सका हैं।

क्रिकेट में जो स्थान डॉन ब्रैडमैन, फुटबॉल में पेले, बॉक्सिंग में मोहम्मद अली, टेनिस में रॉड लेवर और एथलैटिक्स में जे. सी. ओवंस का है, हॉकी में वही स्थान Dhyan Chand का है।Top post on IndiBlogger, the biggest community of Indian Bloggers

जीवन परिचय

मेजर ध्यानचंद Major Dhyan Chand (29 अगस्त 1905 – 3 दिसम्बर 1979) का जन्म इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में साधारण मध्यमवर्गीय परिवार में फौजी सूबेदार समक्षर सिंह दत्त के यहाँ हुआ था। पिता सेना में सिपाही थे।

उनके बचपन में खिलाड़ीपन के कोई विशेष लक्षण दिखाई नहीं देते थे और उनकी खेलो में कोई रूचि तक नहीं थी। इसलिए कहा जा सकता है कि हॉकी के खेल की प्रतिभा जन्मजात नहीं थी, बल्कि उन्होंने सतत साधना, अभ्यास, लगन, संघर्ष और संकल्प के सहारे प्रतिष्ठा अर्जित की थी।

उन्होंने नौवी कक्षा तक शिक्षा प्रास की थी और शिक्षा प्राप्त करने के बाद 1922 में 16 वर्ष की उम्र में सेना में एक साधारण सिपाही की हैसियत से भर्ती हो गए। जब फर्स्ट ब्राह्मण रेजीमेंट में भर्ती हुए उस समय तक उनके मन में हॉकी के प्रति कोई विशेष दिलचस्पी या रुचि नहीं थी।

ध्यानचंद को हॉकी खेलने के लिए प्रेरित करने का श्रेय रेजीमेंट के एक सूबेदार मेजर तिवारी को जाता है। मेजर तिवारी स्वंय भी हॉकी प्रेमी और खिलाड़ी थे। उनकी देख-रेख में ध्यानचंद हॉकी खेलने लगे और देखते ही देखते वह दुनिया के एक महान खिलाड़ी बन गए। धीरे-धीरे उनमें हॉकी का जैसे जुनून सा हो गया और अपनी ड्यूटी के बाद चांदनी रातों में ही हॉकी की प्रेक्टिस करते रहते थे।

हॉकी में शानदार प्रदर्शन करने पर सेना ने ध्यानचंद को यथोचित सम्मान दिया और लगातार पदोन्नतिया मिलती रही। सन 1927 में लांस नायक बना दिए गए। 1932 में लॉस ऐंजल्स जाने पर नायक नियुक्त हुए।

1937 में जब भारतीय हाकी दल के कप्तान थे तो उन्हें सूबेदार बना दिया गया। जब द्वितीय महायुद्ध प्रारंभ हुआ तो सन 1943 में ‘लेफ्टिनेंट’ नियुक्त हुए और भारत के स्वतंत्र होने पर 1948 में कप्तान बना दिए गए। 1938 में उन्हें ‘वायसराय का कमीशन’ मिला और वे सूबेदार बन गए। उसके बाद एक के बाद एक दूसरे सूबेदार, लेफ्टीनेंट और कैप्टन बन गए। बाद में उन्हें मेजर बना दिया गया।

ओलंपिक खेल में जादूगरी

ध्यानचंद ने तीन ओलिम्पिक खेलों में भारत का प्रतिनिधित्व किया तथा तीनों बार देश को स्वर्ण पदक दिलाया। भारत ने 1932 में 37 मैच में 338 गोल किए, जिसमें 133 गोल तो केवल ध्यानचंद ने किए थे।

दूसरे विश्व युद्ध से पहले ध्यानचंद ने 1928 (एम्सटर्डम), 1932 (लॉस एंजिल्स) और 1936 (बर्लिन) में लगातार तीन ओलिंपिक में भारत को हॉकी में गोल्ड मेडल दिलाए।

अगर दूसरा विश्व युद्ध न हुआ होता तो वह छह ओलिंपिक में शिरकत करने वाले दुनिया के संभवत: पहले खिलाड़ी होते ही और इस बात में शक की क़तई गुंजाइश नहीं इन सभी ओलिंपिक का गोल्ड मेडल भी भारत के ही नाम होता।

एम्सटर्डम (1928)

1928 में एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में पहली बार भारतीय टीम ने भाग लिया। भारत ने आस्ट्रेलिया को 6-0 से, बेल्जियम को 9-0 से, डेनमार्क को 6-0 से, स्विटज़लैंड को 6-0 से हराया और इस प्रकार भारतीय टीम फाइनल में पहुँच गई।

फाइनल में भारत और हालैंड का मुकाबला था। फाइनल मैच में भारत ने हालैंड को 3-0 से हरा दिया। इसमें दो गोल ध्यानचंद ने किए।

लास एंजिल्स (1932)

1932 में लास एंजिल्स में हुई ओलम्पिक प्रतियोगिताओं में भारत ही जीता, जिसमे ध्यानचंद ने 262 में से 101 गोल स्वयं किए। निर्णायक मैच में भारत ने अमेरिका को 24-1 से हराया था। तब एक अमेरिका समाचार पत्र ने लिखा था कि “भारतीय हॉकी टीम तो पूर्व से आया तूफान थी और उसने अपने वेग से अमेरिकी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों को कुचल दिया“।

बर्लिन (1936)

1936 के बर्लिन ओलपिक खेलों में ध्यानचंद को भारतीय टीम का कप्तान चुना गया। इस पर उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा – मुझे ज़रा भी आशा नहीं थी कि मैं कप्तान चुना जाऊँगा खैर, उन्होंने अपने इस दायित्व को बड़ी ईमानदारी के साथ निभाया। 15 अगस्त 1936 को भारत और जर्मन के बीच फाइनल मुकाबला हुआ। भारतीय खिलाड़ी जमकर खेले और जर्मन की टीम को 8-1 से हरा दिया।

ध्यानचंद Dhyan Chand ने अपना अंतिम अंतर्राष्ट्रीय मैच 1948 में खेला। अंतर्राष्ट्रीय मैचों में उन्होंने 400 से अधिक गोल किए। इसके बाद उन्होंने नवयुवकों को गुरु-मंत्र सिखाने शुरू कर दिए और राजस्थान के माउंट आबू में कोच का काम करने लगे। इसके बाद उन्होंने पटियाला के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्पोर्ट के मुख्य हॉकी कोच होने के पद को स्वीकार किया और कई सालो तक उसी पद रहते हुए काम भी किया।

किंवदंतियाँ, घटनाये और महान लोगो द्वारा मेजर ध्यानचंद के लिए कहे गए वाक्य

किसी भी खिलाड़ी की महानता को नापने का सबसे बड़ा पैमाना है कि उसके साथ कितनी किंवदंतियाँ घटनाएं और किस्से जुड़े हैं। उस हिसाब से तो मेजर ध्यानचंद का कोई जवाब नहीं है, इनमें से कुछ इस प्रकार से हैं।

  1. हॉकी की बॉल ध्यानचंद की ही हॉकी से क्यों चिपकी रहती थी, यह देखने के लिए हॉलैंड में उनकी स्टिक को तोड़ कर भी देखा गया था कि कहीं उसमें चुम्बक तो नही है।
  2. अपने ज़माने में इस खिलाड़ी ने किस हद तक अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया होगा इसका अंदाज़ा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि वियना के स्पोर्ट्स क्लब में उनकी एक मूर्ति लगाई गई है, जिसमें उनके चार हाथ और उनमें चार हॉकी स्टिकें दिखाई गई हैं, मानों कि वो कोई देवता हों।
  3. दो बार के ओलंपिक चैंपियन केशव दत्त ने कहते हैं कि बहुत से लोग उनकी मज़बूत कलाईयों ओर ड्रिब्लिंग के कायल थे। “लेकिन उनकी असली प्रतिभा उनके दिमाग़ में थी, वो उस ढ़ंग से हॉकी के मैदान को देख सकते थे जैसे शतरंज का खिलाड़ी चेस बोर्ड को देखता है। उनको बिना देखे ही पता होता था कि मैदान के किस हिस्से में उनकी टीम के खिलाड़ी और प्रतिद्वंदी मूव कर रहे हैं।”

  4. 1936 के ओलंपिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई। ध्यान चंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं, “मैं जब तक जीवित रहूँगा इस हार को कभी नहीं भूलूंगा।
  5. करिश्माई खिलाड़ी 1948 और 1952 में भारत के लिए खेलने वाले नंदी सिंह का कहना है कि ध्यानचंद के खेल की ख़ासियत थी कि वो गेंद को अपने पास ज़्यादा देर तक नहीं रखते थे। उनके पास बहुत नपे-तुले शॉट्स होते थे और वो किसी भी कोण से गोल कर सकते थे।
  6. 15 अगस्त, 1936 को हुए फाइनल में मैच से पहले वाली रात को बर्लिन में जमकर बारिश हुई थी, इसी वजह से मैदान गीला था। भारतीय टीम के पास स्पाइक वाले जूतों की सुविधा नहीं थी और सपाट तलवे वाले रबड़ के जूते लगातार फिसल रहे थे। भारतीय कप्तान ने इस समस्या का समाधान ढूंढा और हाफ टाइम के बाद जूते उतार कर नंगे पांव ही खेलना शुरू कर दिया और गोल दागने की रफ्तार बढ़ा दी। भारत ने 8-1 से जर्मनी को रौंदकर गोल्ड मेडल पर कब्जा जमा लिया।
  7. क्रिकेट के महानायक Sir Don Bradman ने ध्यानचंद के लिए कहा है – “वह cricket के रनों की भांति goal बनाते है।“
  8. जर्मनी के एक संपादक ने ध्यानचंद की उत्तम खेल कला के बारे में इस तरह टिपण्णी की है – “कलाई का एक घुमाव, आँखों देखी एक झलक, एक तेज मोड़, और फिर ध्यानचंद का जोरदार गोल।“
  9. ध्यानचंद के खेल से प्रभावित हिटलर ने उन्हें Germany में बसने का न्योता दिया, लेकिन देशभक्ति से लबरेज ध्यानचंद ने उनके इस प्रस्ताव को सविनम्र ठुकरा दिया था।
  10. टीम में ध्यानचंद की उपस्तिथि मात्र से ही विपक्षी टीमें घबराने लगती थी। ध्यानचंद और उनके भाई रूप सिंह हॉकी टिवंस के नाम से प्रसिद्ध थे। दोनों भाइयों में खेल की सूझबूझ और तालमेल इतना अच्छा था कि विपक्षियों में दोनों भाइयों कि जोड़ी को अग्रिम पंक्ति की खतरनाक जोड़ी माना जाता था। अपने छोटे कद के बावजूद ध्यानचंद की चाल – ढाल, भाव – भंगिमा गंभीर और सम्मान भरी थी।
  11. भारत-पाकिस्तान के विभाजन के बाद भारतीय हॉकी टीम एक बार पेशावर जा रही थी। लाहौर रेलवे स्टेशन पर कुछ हॉकी प्रेमियों ने ध्यानचंद को देख लिया। इसके बाद ध्यानचंद की एक झलक पाने के लिए हज़ारों की भीड़ स्टेशन पर जमा हो गई थी।
  12. लंदन ओलिंपिक (2012) के दौरान एक मेट्रो स्टेशन का नाम ध्यानचंद के नाम पर रखा गया था।

मृत्यु

विश्व हॉकी जगत के शिखर पर जादूगर की तरह छाए रहने वाले मेजर ध्यानचंद कैंसर जैसी लंबी बीमारी को झेलते हुए 3 दिसम्बर, 1979 को मृत्यु को प्राप्त हो गए। झांसी में उनका अंतिम संस्कार किसी घाट पर न होकर उस मैदान पर किया गया, जहां वो हॉकी खेला करते थे। अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में उन्होंने लिखा था, आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूं।

सम्मान

1956 में, 51 साल की उम्र में मेजर के पद पर कार्य करते हुए वे सेवानिवृत्त हुए थे और इसके बाद उसी साल भारत सरकार ने उन्हें भारत के तीसरे सर्वोच्च सम्मान पद्म भूषण देकर सम्मानित किया।

इनकी मृत्यु के बाद उनके जीवन के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए भारत की राजधानी दिल्ली में उनके नाम से एक हॉकी स्टेडियम का उद्घाटन किया गया। इसके अलावा भारतीय डाक सेवा ने भी ध्यानचंद के नाम से डाक-टिकट चलाई।

उनके जन्मदिन को भारत का राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित किया गया है। इसी दिन खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार अर्जुन और द्रोणाचार्य पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। उनकी याद मे सरकार ने ध्यानचंद पुरस्कार रखा है

भारतीय ओलम्पिक संघ ने ध्यानचंद को शताब्दी का खिलाड़ी घोषित किया था।

मेजर ध्यानचंद ने हॉकी के जरिये देश का आत्मगौरव बढाया है उन्होंने उस दौर में हॉकी को चरम पर पहुंचाया, जब न तो विज्ञापनों से इतना पैसा मिलता था, न मीडिया की इतनी अधिक हाइप मिलती थी। फौज से मिलने वाली सैलरी और खेलों से मिलने वाली राशि के सहयोग से मेजर ध्यानचंद ने इस खेल को अपना जीवन समर्पित कर दिया। इस महान खिलाड़ी को यह देश हमेशा शत-शत नमन करता रहेगा।

अगर वक्त किसी चीज को लौटाना चाहे तो बेशक हर एक भारतीय खेल जगत मेजर ध्यानचंद को मांगना चाहेगा। उनसा न कोई हुआ और हो सकता है भविष्य में न हो। खेल से खिलाड़ी की पहचान बनती है लेकिन ध्यानचंद तो हॉकी का आइना बन गए थे।

लेकिन हॉकी के जादूगर मेजर ध्यानचंद को देश वो सबसे बड़ा सम्मान “भारत रत्न” आज भी नहीं दे पाया है जो दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह एडॉल्फ़ हिटलर तक के प्रस्ताव को ठुकरा कर आया था।

पिछले काफी लंबे समय से भारतीय हॉकी के दिग्गज ध्यानचंद को भारत रत्न देने की मांग चल रही है। लेकिन अब लगता है यह मांग जल्द ही पूरी हो सकती है। केंद्रीय खेल मंत्री विजय गोयल ने प्रधानमंत्री कार्यालय को चिट्ठी लिख भारत रत्न के लिए ध्यानचंद के नाम की सिफारिश की है और उम्मीद की जा रही है कि यह सिफारिश जल्द ही मंजूर भी की जा सकती है।

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Note: सावधानी बरतने के बावजूद यदि ऊपर दिए गए किसी भी तथ्य में आपको कोई त्रुटि मिले तो कृपया क्षमा करें और comments के माध्यम से अवगत कराएं।

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1 Comment

  1. wsophia on Mar 16, 2018 11:59 pm

    Thank you all for sharing!

    Reply

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