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क्या औलाद आपको सुखी रख सकती हैं? Hindi Kahani

दोस्तों, सुख और दुःख, प्रसन्नता और उदासीपन अपने और आपके कर्मो के ही फल हैं जो कभी न कभी आपके द्वारा किये हुए हैं, इस जन्म में नहीं तो पिछले जन्म में, यह कर्मभोग व्यक्ति को करना ही पड़ता हैं और यहीं जीवन हैं, ऐसा नहीं हैं कि जिसके पास बहुत पैसा हैं वह सुखी हैं ऐसा भी नहीं हैं कि जिसके अधिक बेटे हो वह सुखी हैं, आईये जानते हैं इन सभी बातों को एक छोटी सी कहानी से

बड़े ध्यान से सुनना, बड़ी अच्छी और मार्मिक कहानी हैं।
एक बुजुर्ग आदमी रेलवे स्टेशन पर चाय बेच रहा था, चाय बेचकर वह जाने लगा, गाडी चली गई, चाय की केतली लेकर अपनी झोपडी में चला गया जो स्टेशन के समीप ही थी, थका हुआ हैं, शरीर चल नहीं रहा हैं, इतना बुजुर्ग हो चुका हैं कि बड़ी मुश्किल से वह चल कर अपनी झोपडी में पहुचा और अपनी घरवाली(पत्नी) से कहने लगा। दूसरी रेलगाड़ी आने तक चाय और बना दे और घर वाली भी इतनी ही बुजुर्ग, ताकत नहीं हैं शरीर में पर क्या करें, मज़बूरी हैं और चाय बना रही हैं और वो बैठे-बैठे सोचते हुए कहता हैं कि काश भगवान ने हमें कोई औलाद दी होती।

“तो आज ये दिन न देखना पड़ता”
भगवान ने हमें औलाद दी होती तो वो कमाकर खिलाते, हमें इतने बुढ़ापे में भी काम करना पड़ रहा हैं, यह सब नहीं करना पड़ता।

यह बात सुनकर घरवाली के भी आखो में आसू आ जाते हैं पर वह क्या करें, वह यह बात अनसुना सा करते हुए, चाय बना कर केतली भर कर अपने बुजुर्ग पति को दे देती हैं।

और केतली भर कर वह फिर स्टेशन की और चला जाता हैं।
सुबह से लेकर दोपहर हो गई वो क्या देखता हैं कि एक बुजुर्ग दम्पति बैठे हैं बेंच पर, काफी लम्बे समय से और थोड़े निराश से, कोई भी गाडी रूकती हैं तो उनकी नजरो ऐसे घुमती जैसे किसी तलाश में हो, जैसे कुछ खो गया हो, लेकिन गाडी रवाना होती हैं तो फिर आखो में वही निराशा।

कई गाडी आई और कई चली गई पर ये किसी गाडी में चढ़ नहीं रहे, वह पास में चला गया और पुछा बाबा आपको कहाँ जाना हैं? कौनसी गाडी में चढ़ना हैं मुझे बताओ, मैं यहाँ स्टेशन पर ही चाय बेचता हूँ और मुझे गाडी का पता हैं कौनसी गाडी कब आती हैं, मैं आपको बता दूंगा, आप वाली गाडी कब आएगी।

बेंच पर बैठे बुजुर्ग दम्पति, वैसे ही थे जैसे कि चायवाले की हालत थी वैसे ही स्थिति(बुजुर्ग और थके हुए) उनकी भी थी। वो कहने लगे भाई, हमें कहीं जाना नहीं हैं। हम तो सुबह से ट्रेन से उतर कर यहाँ पर बैठे हुए हैं छोटे बेटे ने हमें चिट्ठी देकर हमें बैठा दिया था कि बड़ा बेटा स्टेशन आकर तुम्हे ले जाएगा। Address दिया हैं घर का जरा पढ़कर बता दीजिये, हम तो अनपढ़ हैं जहाँ का यह address है हमें तो वह पंहुचा दो बस, इतना सा कर दो अगर हमारी सहायता ही करना चाहते हो तो।

ध्यान देना क्या कहा, छोटे बेटे ने कि स्टेशन पर बड़ा बेटा लेने आ जाएगा अगर किसी वह से वह नहीं आ पायें तो इसी पते पर पहुच जाना।

उस चाय वाले ने जब वह चिट्टी पड़ी तो वह तो वही चक्कर खाकर गिर गया ऐसा क्या लिखा था चिट्ठी हैं, ध्यान दीजिए..

यह मेरे माता पिता हैं, जिस किसी को भी यह चिठ्ठी मिले तो वह कोई भी वृदाश्रम मिले वहां जाकर छोड़ आना

किसी भी वृदाश्रम में जाकर छोड़ आना, झूठ बोला था कि बड़ा बेटा लेने आएगा देखिये उस चाय वाले के मन में क्या विचार आया।
मैं तो बेऔलाद हूँ इसलिए मुझे काम करना पड़ रहा हैं इसके तो दो-दो बेटे हैं छोटा भी हैं और बड़ा भी हैं और कोई भी साथ रखने तक को तैयार नहीं हैं।

अब बताओ? औलाद होनी चाहिए या नहीं होनी चाहिए औलाद सुख देती हैं या नहीं देती आपको क्या लगता हैं औलाद होनी चाहिए या नहीं होनी चहिए।

मित्रो यह सही बात हैं कि औलाद का और सुख का तो कोई लेना देना ही नहीं हैं ये हमारी गलतफहमी हैं कि औलाद हमें सुख देती हैं या औलाद हमें दुःख देती हैं। हमारी घरवाली यह परिवारजन हमें दुःख देते हैं या सुख देते हैं।

याद रखे सुख और दुःख मिलते हैं कर्मो से, तेरे कर्म अच्छे हैं तू अकेला बैठा हैं और फिर भी सुखी हैं और अगर तेरे कर्म नेक नहीं हैं तो राजगद्दी पर बैठा हैं फिर भी दुखी हैं

और कर्म कैसे बनते हैं, इस पर गीता (श्रीमद्भगवद्गीता) में एक अध्याय में काफी अच्छे से श्रीकृष्ण ने समझाया हैं कि कर्म के शुभ अशुभ फल को अवश्य भोगना पड़ता है, उससे छुटकारा नहीं मिलता।

श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है। हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं; क्योंकि हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते।

जीवन की रक्षा के लिए, समाज की रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, विश्व की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है। किन्तु यह भी एक सत्य है कि दु:ख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है। सारे दु:ख और कष्ट आसक्ति से उत्पन्न हुआ करते हैं।

गीता में कहा गया है कि मन का समता भाव ही योग है जिसमें मनुष्य सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, संयोग-वियोग को समान भाव से चित्त में ग्रहण करता है और कर्मफल में आसक्त नहीं होता। कर्म-फल का त्याग कर धर्मनिरपेक्ष कार्य या कहिए कर्म फल में आसक्त हुए बिना कर्म का सम्पादन भी पूजा के समान हो जाता है। याद रखिये कार्य की प्रकृति कोई भी हो निष्काम कर्म सदा ईश्वर को ही समर्पित हो जाता है।

कर्म के इस सिद्धांत के साथ स्वर्ग-नरक की कल्पनाएँ भी जुड़ी हैं। शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप सकल सुखों से पूर्ण स्वर्ग की प्राप्ति होती है। इसके विपरीत नरक की प्राप्ति होती है।

यहाँ मेरा मतलब ऐसा बिलकुल भी नहीं हैं कि उस बुजुर्ग के बेटे उसके साथ गलत नहीं कर रहे, बिकुल गलत कर रहे हैं और धर्म कभी भी इसे नहीं स्वीकारता, जैसे मैंने ऊपर कहां हैं कि व्यक्ति को उसके कर्म के अनुसार ही कर्मफल भोगने होते हैं, उसकी औलादे भी इस अधर्म का परिणाम भोगेगी, यह निश्चित हैं और यह सब परम पिता परमेश्वर के अधीन हैं कि उसे यह सब कब भुगतना हैं।


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